Netflix pagglait movie review in Hindi

Pagglait movie review: समाज को आईना दिखाती है ये पगलैट

जिस समाज में विधवा होना सबसे बड़ा अभिशाप हो, उसी समाज में अगर कोई जवान औरत अपने पति के मौत के बाद भी कूल रहने की कोशिश करे तो क्या होगा.. क्या होगा अगर कोई पत्नी कहे कि उसे पति के मरने से अधिक दुख उसकी बिल्ली की मौत पर हुआ था। जाहिर है या तो इसे सदमा कहा जाएगा या पागलपन और इसी पागलपन के जरिए समाज को आईना दिखाने की कोशिश है पगलैट। जी हां, हम बात कर रहे हैं नेटफिलिक्स की हालिया रिलीज फिल्म पगलैट की जो दर्शकों के लिए बेहद अलग कंटेंट लेकर आई है। तो चलिए इस फिल्म के रिव्यू (Pagglait movie review) के जरिए जानते हैं कि पगलैट के मेकर्स की ये कोशिश वास्तव में कितनी कामयाब है।

पागलों से ही दुनिया में बदलाव की बहार है

हमारा समाज बने बनाए नियमों पर चलता है, अगर कोई इसे हटकर या अलग सोचने की कोशिश भर करें तो जमाना उसे पागल घोषित कर देता है। जबकि सच्चाई तो ये है कि इस दुनिया में जब भी कोई बदलाव हुआ है तो वो इन्हीं तथाकथित पागलों के जरिए हुआ है। फिल्म पगलैट का भी सार यही है, इसमें दो डायलॉग हैं.. पहला ‘जब लड़की लोग को अकल आती है न तो सब उन्हें पगलैट ही कहते है’। दूसरा ‘अगर हम अपने फैसले खुद नहीं लेंगे, तो दूसरे ले लेंगे’। ये डायलॉग किस संदर्भ में कहे गए हैं, ये जानने के लिए पहले आपको फिल्म की कहानी जाननी होगी।

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दरअसल, एकता कपूर के बालाजी मोशन पिक्चर्स और एक अन्य बैनर तले बनी इस फिल्म की कहानी लखनऊ के गिरी परिवार की है। कहानी शुरू होती है शिवेंद्र गिरी (आशुतोष राणा) के बेटे आस्तिक की आकस्मिक मौत से, जिसके बाद घर में सांत्वना देने के लिए तमाम नाते रिश्तेदारों का आना लगा रहता है। पर इसी घर के एक कमरे में एक शख्स ऐसा भी है, जिसे इस मौत कुछ खास फर्क नहीं पड़ा है और वो है आस्तिक की पत्नी संध्या। संध्या और आस्तिक की शादी की अभी सिर्फ 5 महीने ही बीते हैं, जबकि ऐसी घटना जाती है।

घर में आस्तिक के अंतिम क्रियाक्रम के साथ ही तमाम तरह के कर्म काण्ड चल रहे होतें है और संध्या अपने कमरे में किताबों और फेसबुक में बिजी है.. जबकि उसके दुख में साझी बनने आए उसके मा-बाप और सहेली नाजिया उसके लिए काफी परेशान हैं। इसी बीच एक रोज संध्या को आस्तिक की फाइल से उसकी गर्लफ्रेंड अकांक्षा की फोटो मिलती है। ऐसे में संध्या के मन में आस्तिक के प्रति गुस्सा भर जाता है कि उसने संध्या को धोखे में रखा था।

फिर एक रोज संयोग वश उसका आस्तिक की गर्लफ्रेंड अकांक्षा से मिलना होता है, जिससे मुलाकातों के साथ ही संध्या के गिले शिकवे खत्म हो जाते हैं। पर कहानी की हैप्पी एंडिंग यहीं नहीं होती, बल्कि इसके बाद आता है कहानी में असली मोड़ जब एक दिन इंश्योरेंस वाले आते हैं और बताते हैं कि आस्त‍िक ने संध्या के नाम 50 लाख रुपये की पॉलिसी ले रखी थी। जिसके बाद घर वालों का रवैया बदल जाता है, रिश्तेदार आस्त‍िक के मां-बाप कान भरने शुरू कर देते हैं।

इतना ही नहीं आस्तिक की मां और चाची मिलकर इंश्योरेंस के पैसों को घर में ही रखने के लिए एक प्लान भी बना लेती हैं। संध्या को आस्तिक के चचेरे भाई आदित्य से शादी के लिए राजी कर लेती हैं। संध्या की मां अलग परेशान है… इस तरह से घर में सब संध्या के लिए अपने-अपने समीकरण बिठाते हैं, पर कोई उससे ये नहीं पूछता कि वो क्या चाहती।

पांच महीने की शादी में संध्या का आस्तिक से किसी तरह का जुड़ाव नहीं हो सका था। लेकिन आस्तिक के जाने के बाद उसकी तेरही के कार्यक्रम के 13 दिनों में बदलते रिश्तें और दुनियादारी के साथ ही उसे आत्मबोध होता है और फिर वो लेती है खुद के लिए एक निर्णय। ये निर्णय क्या होता है, ये तो फिल्म का आखिरी मिनटों का सस्पेंस जो हम यहां बताकर इसकी रोचकता नहीं खत्म कर सकते हैं। हमारी कोशिश आपको इस फिल्म का ईमानदार रिव्यू (Pagglait movie review) देने की है तो बात कर लेते हैं अभिनय और निर्देशन जैसे दूसरे पहलुओं की।

मझे हुए कलाकारों की शानदार अदायगी

फिल्म पगलैट की कहानी के अलावा सबसे बड़ी खासियत है इसकी स्टार कास्ट। जैसे ही फिल्म शुरू होती है, अलग-अलग किरदारों में दिग्गज कलाकारों की एंट्री होने लगती है और हर कलाकार के साथ आप भी किरदार में खो जाते है। जैसे आस्तिक के माता-पिता के रूप में शीबा चड्ढा और आशुतोष राणा के गमगीन चेहरे को देख मन में अलग ही संवेदना जागती है तो ताऊ और चाचा के रूप में रघुवीर यादव और राजेश तैलंग की अदाकारी आपको करीबियों की याद दिलाती है।

वहीं सान्या मल्होत्रा ने तो संध्या के किरदार को माने जीवित ही कर दिया है। संध्या आम सी लड़की है, जिसमें कई कमियां भी हैं। पर खूबी यही है कि वो दूसरों को दिखाने के लिए कोई निर्णय नहीं लेती है, वो अपने मन की सुनती है। वो लापरवाह भी है और संजीदा भी, थोड़ी नासमझ भी और होशियार भी । इस अतरंगी किरदार को सान्या ने अपने बेहतरीन अभिनय से रोचक बना दिया है।

सधे हुए निर्देशन ने बांधा अलग समा

देखा जाए तो पगलैट की कहानी एक शोकाकुल परिवार की है, पर जिस तरह से इसे पेश किया गया है, उसमें शोक से अधिक संजीदगी का भाव जागता है। जहां मध्यम वर्गीय परिवार की, सकुचाई सी अनकही सच्चाई को बेहद करीब से दिखाया गया है। मृत्यु के बाद कुश आसन से लेकर तेरहवीं संस्कार के बीच परिवार में घटने वाली हर घटना को डायरेक्टर उमेश बिष्ट ने करीने से दिखाया है। फिर चाहे वो पारिवारिक संवेदना हो या मृत्यु का दुख, प्रॉपर्टी की चिंता हो, या नया आयाम लेते रिश्ते… डायरेक्टर ने कहीं भी कहानी से पकड़ छूटने नहीं दी।

क्या है पगलैट की ख़ामिया

वैसे तो इस फिल्म में कोई खास ख़ामी नजर नहीं आती है, असरदार कहानी है, सधा हुआ निर्देशन है और उसे पूरा साथ मिला है मझे हुए कलाकारों का। यहां तक कि इसके गीत-संगीत पर भी अच्छा काम किया गया है, बता दें कि फिल्म पगलैट के साथ अरिजीत सिंह बतौर म्यूजिक कंपोजर सामने आए हैं, वहीं फिल्म के लिए गानों के बोल लिखे हैं नीलेश मिश्रा और रफ्तार ने। हालांकि ‘थोड़े कम अजनबी’ गाने को छोड़ दिया जाए तो दूसरा गीत इतना प्रभावी नहीं है, पर इसे फिल्म की ख़ामी भी नहीं मानी जा सकती है। हां इतना है कि इस फिल्म में ऐसा कोई रोचक मोड़ या दृश्य नहीं है कि जो दर्शकों को ताली या वाहवाही के लिए मजबूर कर दे।

क्यों देखनी चाहिए पगलैट

अगर बात करें कि क्यों देखनी चाहिए फिल्म पगलैट तो अगर आप अच्छे सिनेमा के शौकीन हैं तो ये फिल्म आपको जरूर छोड़ देखनी चाहिए। इसमें बेहतरीन अदाकारी का जलवा भी है और मानवीय संवेदनाओं का उल्लास भी, यहां किरदारों की हरकतों पर हंसी भी आती है और उसके पीछे की दकियानूसी सोच पर तरस भी। पगलैट देखने का सबसे बड़ा सुख भी यही है, कि नाम के विपरीत ये फिल्म, सकारात्मक उर्जा जगाते हुए महिला विमर्श की हौले से नई राह दिखा जाती है।

खैर बाकि आपकी मर्जी है कि फिल्म देखनी है या नहीं, हम उम्मीद कर सकते हैं कि ये रिव्यू Pagglait movie review पढ़ कर आपके चुनाव का काम कुछ हद तक आसान हो गया होगा।

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